Bhagavad Gita: Chapter 13, Verse 30

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश: |
य: पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति || 30||

प्रकृत्या-माया शक्ति द्वारा; एव–वास्तव में; च-भी; कर्माणि-कर्म; क्रियमाणानि–निष्पादित किये गये; सर्वशः-सभी प्रकार से; यः-जो; पश्यति-देखता है; तथा—भी; आत्मानम् देहधारी आत्मा को; अकर्तारम्-अकर्ताः सः-वह; पश्यति-देखता है।

Translation

BG 13.30: जो यह समझ लेते हैं कि शरीर के समस्त कार्य माया द्वारा सम्पन्न होते हैं तथा देहधारी आत्मा वास्तव में कुछ नहीं करती। केवल वही वास्तव में देखते हैं।

Commentary

तंत्र भागवत में वर्णन है-“अहड्कारात् तु संसारो भवेत् जीवस्य न स्वतः" अर्थात् शरीर होने का अहंकार और कर्ता होने का अभिमान आत्मा को जीवन और मृत्यु के संसार में फंसा लेता है। अहंकार के कारण हम अपनी पहचान शरीर के रूप में करते हैं और हम शरीर के कार्यों को आत्मा पर आरोपित करते हैं तथा यह सोचते हैं कि 'मैं यह कर रहा हूँ। लेकिन महापुरुष को सदा ही यह बोध होता है कि खाने-पीने, वार्तालाप इत्यादि कार्य केवल शरीर द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं। किन्तु फिर भी आत्मा शरीर द्वारा किए गए कार्यों के उत्तरदायित्व से विलग नहीं रह सकती। जिस प्रकार से कोई राष्ट्राध्यक्ष स्वयं न लड़ते हुए देश द्वारा लड़े जाने वाले युद्ध के निर्णय के लिए उत्तरदायी होता है। उसी प्रकार से आत्मा भी जीवित प्राणियों के कार्यों के लिए उत्तरदायी होती है भले ही वे कार्य शरीर, मन और बुद्धि द्वारा सम्पन्न किए गए हों। इसी कारण से साधक को इन दोनों पक्षों को मन में अवश्य ही रखना चाहिए। महर्षि वसिष्ठ ने राम को यह उपदेश दिया था, “कर्ता बहिरकर्ता अंतर्लोके विहर राघव (योग वासिष्ठ)" अर्थात् राम! कर्म करते समय बाह्य रूप से ऐसा परिश्रम करो जैसा कि इसका परिणाम तुम पर निर्भर हो लेकिन आंतरिक दृष्टि से स्वयं को अकर्ता समझो।

Swami Mukundananda

13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग

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